⛈️🐸(हास्य व्यंग्य)ये टर्राने का मौसम
ये टर्राने का मौसम
शाम बारिश बन्द हुई और मेढक टर्राने लगे.एक ने मेढ़की से गरम भजियों की टर्रान लगाई तो दूसरा चीले के लिए टर्राने लगा.बस फिर क्या था.रसोई महकी और महक खिड़की से बाहर भी चली गई चुगलखोर कहीं की!सभ्रांत कॉलोनियों के पडौसी
मेढक मन मसोस कर रहने के अभ्यस्त होते हैं लेकिन यहाँ गाँव कस्बे में मेढक ढीठ किस्म के हैं. खिड़की से नाक लगा कर इतनी ज़ोर से टर्र टर्र करते हैं कि अगले के मुँह से निकल ही जाता है - चले आओ भाई.अब आप ही बताइये भजिए खाने में इनकी ड्यूटी थोड़ी लगी है कि चुप्प चाप खाएं, इसीलिए खाते और टर्राते जाते हैं.इनका टर्राना माहौल के मुताबिक होता है जैसे आजकल ये ओलंपिक पर टर्रा रहे हैं.कभी ये मंहगाई पर तो कभी अर्थव्यवस्था पर टर्राते हैं. कोरोना की तीसरी लहर और वैक्सीन पर टर्राना आजकल के मेढकों का नया शगल है.मज़े की बात दो चार साल पहले यही मेढ़क इस मौसम में जगह-जगह पानी के जमाव और गंदगी पर टर्राया करते थे अब ये मुद्दे गायब हैं इससे प्रमाणित होता है कि गन्दगी अब बची नहीं या फिर जो बचा है उसे ये गन्दगी नहीं कहते.कहना भी नहीं चाहिए.आखिर जिसमें रहना है उसे गंदगी क्यों कहें? कहने को और भी बहुत कुछ है. कुछ और भले न बदल सके, नाम तो बदल ही सकते हैं.
कुछ मेढ़क निहायत ही आवारा किस्म के होते हैं... मेढ़कीयां भी, वे बरसात में रोमॅंटियाने लगते हैं.गाने लगते हैं. सुनने वाले परेशान... ए भाई / बहन तुम्हारा सुर टर्राहट भरा है. बस भी करो यार.मगर वे अपने में ही खोए रहते हैं भूल जाते हैं कि वे गा नहीं टर्रा रहे हैं.वैसे ठीक भी है, टर्राएं न तो कौन कहेगा कि ये मेढ़क हैं! इन्हे पता है कि टर्राना ही इनके होने का सबूत है. इसी टर्राहट पर इनका अस्तित्व टिका है.दस महीने मौन धारण किए दबे पड़े रहते हैं तब किसको याद रहता है कि ये हैं? तो ये दुनिया है साहब. यहाँ बने रहने के लिए भी टर्राना पड़ता है.अब चला जाए. सभी मेढ़क आनंद उठाएं.सभी को बरसात मुबारक. ओके टर्र- टर्र.
(स्वरचित मौलिक कॉपी पेस्ट न करें)
अनीता श्रीवास्तव
जबरदस्त 🐱🐱
ReplyDelete😘😘👍
ReplyDeleteटर्र- टर्र
ReplyDeleteबरसात के मौसम के अनुकूल कहानी
ReplyDeleteसामाजिक यथार्थ और धार दार कटार
ReplyDeleteबधाई
Bahut achha
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