आओ ईश्वर को खुश करें

 

आओ ईश्वर को खुश करें
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      हमने अपनी माँ, मौसी और चाचियों को लंबे और कठिन उपवास एवम संयमित आहार-विहार के साथ जीवन जीते देखा है।इसमें ईश्वर को खुश करने का भाव होता है ,हमे यही बताया जाता था।पेड़, पौधों, गाय, नदी, गोवर्धन पर्वत, सर्प और हाथी ,चूहे और पक्षी सब के लिए कुछ न कुछ था।आज इस कठिन दौर ने हमें झकझोर कर जगाया है जैसे कोई कह रहा हो खुशी की तलाश में कितने भटके, कितना कुछ बटोरा मगर एक नन्हे से विषाणु ने सब तहस-नहस कर दिया। खुशी रूठ गई।मन की शांति खो गई।रातों की नींद उड़ गई।क्योंकि ईश्वर हमारे आत्मकेंद्रित बर्ताव से खुश नहीं हुआ अपितु  खामोशी से नाराजगी ओढ़ता चला गया। आज हमें जिस खुशी की ज़रूरत है उसके लिए हम हताश और निराश होने के कगार पर हैं।तो क्यों न खुशी और आनंद के स्रोत उस ईश्वर को खुश करें।जो हमारे भीतर की उदासी को अपने प्रकाश से नष्ट करता है।कोरोना के भय प्रसारित करने वाले वातावरण में हमे आशा के प्रकाशपुंज की ओर मोड़ कर ले जा सकता है।
       हम आज के दौर में एक बदले हुए अर्थ में अपने व्रत और परंपराओं को संकल्पों का रूप दे सकते हैं।ज़रूरतमंद लोगों की मदद का संकल्प।ये कोई समाजसेवा का कर्यक्रम नहीं बल्कि आपके अपने बिल्कुल निकट के आश्रित और सेवाएं देने वाले आपके बीच के लोग होंगे।इनके साथ ,सामग्री या सहूलियत , कुछ भी सांझा करके हम ईश्वर को खुश कर सकते हैं। मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे अब भी होंगे लेकिन इन बदली हुई परिस्थितियों में हमें दरिद्र में नारायण को खोजना होगा हमारे पूवजों ने पहले ही इसकी प्रतिष्ठा कर दी थी वे तो दरिद्र को दरिद्रनारायण भी कहा करते थे।आपने अपने जीवन मे कभी न कभी इस सुख को अवश्य महसूस किया होगा कि ईश्वर के आशीर्वाद के प्रकाश की किरणें कभी -कभी झुर्रियों के बीच से फूट पड़तीं हैं। मंगलकामनाएं निःशब्द रहते हुए भी हमारे ह्रदय  को आनन्दित कर जातीं हैं।बहुत बार ऐसा भी हुआ होगा जब किसी को क्षमा करके आपने स्वयं को विजेता महसूस किया होगा।आइए धर्म की कथाओं, नीति के वचनों , प्रार्थनाओं और स्तुतियों में व्यक्त आर्त भाव से गाई जाने वाली भावनाओं को कुछ अंशों में ही सही जी कर देखें।
           व्रत का एक अर्थ, भोजन का प्रकार बदलना नहीं, सोच का प्रकार बदलना भी हो सकता है।पंछियों को पानी रखने,पशुओं को चारा देने, कामवाली से एक दिन कम काम लेने,नौकर से उसके परिवार का हाल पूछने का भी, न बोलने वालों से खुद कर बोल लेने का भी व्रत हो सकता है।अपना कोई न भी हो तो भी अस्पताल का चक्कर लगाया जा सकता है।कितना कुछ है जो जीवन दाता के दिये इस सुंदर शरीर से किया जा सकता है।धर्म के जलसा स्वरूप को घर के आराधनस्थल तक सीमित कर हम इसके सामाजिक स्वरूप को अपनी नेकियों से जिंदा रख सकते हैं।खुशियां चाहिए तो आइए खुशियां बांट कर ईश्वर को खुश

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